मनुष्य जो भी है, वो उसका स्वयं का ही कृत्य है।

कर्म कुहाड़ा अंग वन, काटत बारंबार ।
अपने हाथों आप को, काटत है संसार ॥
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साभार ~ दिगन्त आनंद खंडेलवाल

योनि से अर्थ है : प्रकृति। और कला का अर्थ है : कर्ता का भाव। संसार में उतरने की एक ही कला है, मनुष्य में कर्ता का भाव, अहंकार और प्रकृति से मिला हुआ शरीर। भीतर यदि कर्ता-भाव है, तो उस कर्ता-भाव के योग्य शरीर प्रकृति देती चली जायेगी। इसी तरह मनुष्य बार-2 जन्मा है। कभी वो पशु था, कभी वो पक्षी था, कभी वृक्ष, और कभी मनुष्य। उसकी चेतना में जैसी चाह थी, वैसा ही जन्म उसे मिला। उसने जो आकांक्षा की, जो कर्तृत्व की वासना की वो ही घटित हो गया।
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मनुष्य जो भी वासना भीतर संगृहीत करता है, वही बीज बन जाती है। प्रकृति केवल शरीर देती है, कलाकार तो चैतन्य स्वयं है स्वयं का निर्माण करने में; अपने शरीर को मनुष्य ने स्वयं ही बनाया है, ये ही कला का अर्थ है। कोई दूसरा मनुष्य को शरीर नहीं दे रहा है, उसकी वासना ही शरीर निर्मित करती है। ध्यान दें, रात्रि में मनुष्य सोता है तो जो आख़िरी विचार होता है, वो ही सुबह जागने पर पहला विचार होता है। मनुष्य की मृत्यु के क्षण उसके जीवन का जो सार है, सारी वासना संगृहीत होकर बीज बन जाती है। वही बीज नया गर्भ बन जायेगा। जहाँ से मनुष्य मिटा, वहीं से नया जीवन शुरू हो जायेगा।
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मनुष्य जो भी है, वो उसका स्वयं का ही कृत्य है। किसी दुसरे को दोष न दे मनुष्य, कोई दूसरा नहीं है जिसे दोष दिया जा सके; ये मनुष्य के कर्मों का ही संचित फल है। जो भी मनुष्य है, सुंदर-कुरूप, दुखी-सुखी, स्त्री-पुरुष-जो भी मनुष्य है, वह उसके स्वयं के ही कृत्यों का परिणाम है। वो स्वयं ही अपने जीवन का कलाकार है। कभी भी मनुष्य ये न कहे कि भाग्य ने उसे ऐसा ही फल दिया है; क्योंकि ये स्वयं को धोखा देना है। इस तरह मनुष्य जिम्मेवारी दूसरे पर डाल रहा है। ये तरकीब है स्वयं के दायित्व से बचने की; इस कारागृह में मनुष्य अपने स्वयं के ही कारण है। जो इस सत्य को समझ लेता है उसके जीवन में क्रांति आ जाती है।